कहते हैं कि बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी |
आज जब संचार क्रांति के इस युग में किसी भी बात का बतंगड़ बनाने में सौदागरों ( मीडिया के ) को 5 मिनट भी नहीं लगते ऐसे में कोई भी बात रखने से पहले राष्ट्रीय सरोकार को ध्यान में ना रखने वाले कहीं भी ना सिर्फ मुहँ फाड़कर चले आते है बल्कि देश की इज्ज़त को तार - तार करने से भी नहीं चूकते , ऐसे में क्या ये प्रश्न नहीं खड़ा होता कि आखिर कथित रूप से बोलने की आज़ादी के आखिर मानक क्या हैं ?
अब उदाहरण के तौर पर हाल ही में वरिष्ठ परमाणु वैज्ञानिक डॉ के . संथानम ( गौरतलब है कि डॉ के. संथानम पोखरण - 2 में परीक्षण स्थल के निर्देशक रह चुके हैं ) द्वारा जब पोखरण - 2 की सफलता पर सवाल उठाये गए तो एक बार फिर से ये सवाल जनता के जेहन में कुलबुलाने लगा कि बोलना तो ठीक हो सकता है पर देश की कमजोरियों पर बोलने के लिए क्या बिकाऊ और गैर - सरोकारी मीडिया ही अंतिम विकल्प है ?
यहाँ प्रश्न डॉ के . संथानम की नीयत पर नहीं बल्कि उस पूरे परिदृश्य पर है जिसमें एक आम आदमी का विश्वास विचार- विमर्श से उठ गया है | क्या डॉ के . संथानम इस बात से नावाकिफ थे कि इस प्रकार की कोई भी अभिव्यक्ति हमारे देश की सुरक्षा व्यवस्था पर सारे संसार के सामने एक सवालिया निशान लगा देगी ? अगर देखा जाये तो नहीं , और भी कुछ विकल्प अवश्य उपलब्ध थे जैसे कि इस पूरे मामले में अगर सत्तापक्ष आपकी बात नहीं सुन रहा तो विपक्ष को पूरे भरोसे में लेकर गोपनीय रूप से सरकार पर आगे की कार्यवाही का दबाव बनाया जा सकता था अगर बात फिर भी नहीं बनती तो कारगर जनांदोलन का स्वरुप तैयार करने की पहल की जा सकती थी | लेकिन अब इस पूरे मामले में बात ना सिर्फ बिगड़ गयी है बल्कि सम्पूर्ण सुरक्षा तंत्र ही जनता का विश्वास खोने लगा है |
मीडिया में इन खबरों को चटकारे लेकर लल्लू - पंजू जानकारों ने भी अपनी राय ऐसे रखी है कि आम आदमी देश की सुरक्षा नीति पर ही सवाल उठाने लगा है | ठीक ऐसी ही शर्मनाक भूल भूतपूर्व थल सेना प्रमुख सेवानिवृत जनरल वेद प्रकाश मलिक भी यह कह के कर चुके हैं कि परमाणु क्षमता के बारे में सेना को विश्वास में नहीं लिया गया है , ' चीन की बराबरी करने का सामर्थ्य भारत में नहीं है ' बोलने वाले एडमिरल और 'अमेरिकी भेदिये' के बारे में बोलकर पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह भी कर चुके हैं |
क्या भारत का शासन तंत्र इनके जैसे कहीं भी बोलने वाले लोगों के लिए क्या कोई प्रोटोकॉल निर्धारित नहीं कर सकता है , और यदि है तो फिर इनके खिलाफ कोई कार्यवाही क्यों नहीं होती ?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश की सुरक्षा पर खुलेआम सवालिया निशान लगाने की अनुमति तो किसी को नहीं दी जा सकती है |
" बोलिए ज़रूर मगर सरकार और विमर्श को बाज़ार के हाथ गिरवी रख चुके मीडिया के सामने नहीं | "
|| " सत्यमेव जयते " ||
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सिर्फ व्यवसायिक मूल्यों को ध्यान में रखने से हुए उसके नैतिक मूल्यों के पतन ही इस प्रकार की घटनाओं के कारण हैं .. इसके सुधरने के कोई आसार भी नहीं दिखते !!
बहुत सुन्दर मुद्दा उठाया है आपने, मै भी इस पर कई बार लिख चुका ! सबसे बड़ी बात तो यह है अगर पोखरण नाकामयाब रहा था तो ये श्रीमान डॉ के. संथानम इतने सालो तक अपने मुह पर पट्टी क्यों बांधे थे?
हर युग मै घर के भेदिये पेदा हुये है, बस नाम ओर काम अलग अलग थे,
संथानम सठिया गये हैं!