कहते हैं कि सरलतम ही सर्वजनों की स्वीकृति प्राप्त करने में सक्षम होता है | ऐसी ही बात संस्कृति के संबंद्ध में भी कही जा सकती है |
आज शाम को यूँ ही रेडियो पर FM 93 .5 किसी कार्यक्रम में एक आर . जे को श्री लालू प्रसाद यादव वाले बिहारी स्टाइल में मनोरंजन करते हुए सुना और यकीन मानिये कि माहौल में एक ज़बरदस्त विनोदी और स्वाभाविक असर पैदा हो गया | वैसे इस खास शैली को पूरे देश में चाहे वो हिमाचल हो या हैदराबाद ,गुवाहाटी हो या फिर महाराष्ट्र बगैर किसी सांस्कृतिक भेदभाव या पूर्वाग्रह के सुना जाता है | इसे हम क्या कहेंगे ? मैं तो इसे सरलता की सफलता ही कहना चाहूँगा | श्री लालू प्रसाद यादव के राजनैतिक व्यक्तित्व को चाहे हम कैसे भी देखें लेकिन इस प्रकार की वार्ता शैली को मीडिया ने एक सांस्कृतिक रूप देकर काफी मशहूर तो बना ही दिया है | पहले - पहल इसका भले ही मजाक बनाया जाता रहा हो लेकिन अब इसको मनोरंजक समझा जाता है |
आज शाम को यूँ ही रेडियो पर FM 93 .5 किसी कार्यक्रम में एक आर . जे को श्री लालू प्रसाद यादव वाले बिहारी स्टाइल में मनोरंजन करते हुए सुना और यकीन मानिये कि माहौल में एक ज़बरदस्त विनोदी और स्वाभाविक असर पैदा हो गया | वैसे इस खास शैली को पूरे देश में चाहे वो हिमाचल हो या हैदराबाद ,गुवाहाटी हो या फिर महाराष्ट्र बगैर किसी सांस्कृतिक भेदभाव या पूर्वाग्रह के सुना जाता है | इसे हम क्या कहेंगे ? मैं तो इसे सरलता की सफलता ही कहना चाहूँगा | श्री लालू प्रसाद यादव के राजनैतिक व्यक्तित्व को चाहे हम कैसे भी देखें लेकिन इस प्रकार की वार्ता शैली को मीडिया ने एक सांस्कृतिक रूप देकर काफी मशहूर तो बना ही दिया है | पहले - पहल इसका भले ही मजाक बनाया जाता रहा हो लेकिन अब इसको मनोरंजक समझा जाता है |
संस्कृतियों की विभिन्नता में वो ही संस्कृति अपना वजूद बनाये रख सकती है जो कि सरलतम रूप में जनसामान्य की अभिलाषाओं को पूरी करने में समर्थ हो , साथ ही तेजी से बदलती दुनिया में खुद को तमाम कर्मकांडों से मुक्त करने की पहल दिखलाये | कई बार हमारी अपनी भारतीय संस्कृति इस बात में ही पिछड़ जाती है | संस्कृति के नाम पर न जाने कितने ही बेमतलब और बोझिल कर्मकांड युवाओं के मन पर थोप दिए जाते है , फिर जब इनके बोझ से दबा युवामन दुनिया की अन्य संस्कृतियों की तरफ देखता है तो उसे उनमें एक ज़बरदस्त स्वच्छंदता दिखलाई पड़ती है जिसको पाने के आवेग में उसकी स्थिति कई बार भौंडी और मर्यादा की सीमा को भी पार कर जाती है |
यहाँ पर यह बात विशेष है कि कोई भी सांस्कृतिक व्यवहार लोगों द्वारा तभी स्वीकृत हुआ है जब उसने मन की स्वतंत्रता को स्वीकार किया और किसी पर अपने उपदेश नहीं थोपे | आज हम अपनी संस्कृति के उपादानों को अपने ही लोगों द्वारा धीरे - धीरे बहिष्कृत होते हुए देख रहे हैं | हर प्रकार के विदेशी पर्व , तौर - तरीके भारतीय त्योहारों और बैठकों का स्थान लेते जा रहें हैं | आज का युवा यह देख कर चिंतित भी हो रहा है लेकिन फिर भी इसको बनाये रखने से कतरा रहा है, आखिर क्यों ?
ज़वाब इस बात में समाहित है कि क्या हम कभी संस्कृति को मठाधीशों , निक्कमे और बेमतलब के विद्वानों और बेबुनियाद कर्मकांडों से मुक्त कर पाने में सक्षम हैं ?
सरलता को स्वीकार किया तो हम विश्व पर राज कर सकते है |
|| " सत्यमेव जयते " ||
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