राष्ट्र संकट में घिरा है | धर्म खतरे में है लेकिन सत्ता के अधिनायक धर्मनिरपेक्षता के खतरे में होने का स्वांग रच रहे हैं | भारतीय धर्मनिरपेक्षता सम्पूर्ण विश्व में अद्वितीय है , यह   धर्म को ना सिर्फ सत्ता से बेदखल कर देती है बल्कि धर्म को राज्य प्रायोजित हथियार बनाकर लोकतंत्र का सौदा करने से भी बाज़ नहीं आती | संविधान के आदेशों और सुझावों को भी इसने पद-दलित करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी है |


 भारत एक धर्म सापेक्ष राष्ट्र है जबकि जैसे ही इसे धर्मनिरपेक्ष बनाया जाता है ये ' इंडिया ' बन जाता है | ' इंडिया ' है तो भोग की अति है , पश्चिमी नंगापन है , इस्लामी आतंकवाद है , हिन्दू प्रतिक्रियावाद है , नक्सलवाद है , माओवाद है , भय है , भ्रष्टाचार है ,  भूख है , गरीबी है ,विषमता है , वितंडावाद है ,विखंडनवाद है , कानून हाशिये पर है और जनसामान्य व्यथित होकर बाहुबल की शरण में जा चुका है | इन सबके बावजूद ' इंडिया ' को कोई फर्क नहीं पड़ रहा क्योंकि यह ' इंडिया ' इन समस्याओं से मुक्त महानगरों में भोगविलास में लिप्त है | ' इंडिया ' धर्मनिरपेक्ष है इसीलिए अधर्म पर चुप रहना श्रेयस्कर समझता है |


विश्व में ऐसे किसी राष्ट्र की मिसाल खोजनी मुश्किल है जिसमें राज्य ने धर्म को इस कदर हाशिये पर रख दिया हो | सिकंदर से लेकर ओबामा तक तेहरान से लेकर नास्तिक क्रेमलिन तक किसी ना रूप में धर्म सत्ता से निर्देशित होते रहे , किन्तु भारत में धर्म सत्ता निरंकुश राजनीती को निर्देशित करे यह सोचना भी संभव नहीं लगता | जिस देश का राष्ट्रपिता तक  धर्मनिष्ठ रहा हो उसकी शासन सत्ता आज धर्म का त्याग कर चुकी है | जब भी जन संघर्ष होता है धर्मनिरपेक्ष सत्ता अपने आडम्बर को सामने लेकर खडी हो जाती है और सारा दोष धर्म के मत्थे मढ़ दिया जाता है | धर्म की हानि होती रही है और सेकुलर ओछी राजनीती के गीत गाते रहे हैं |

कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक , ओखा से लेकर इम्फाल तक की समस्याएं देश को पीड़ित कर रही हैं , राष्ट्र अंग - भंग की कगार तक जा पंहुचा है लेकिन धर्मनिरपेक्ष सत्ता को इससे क्या ? इनकी रोटी - पानी तो दिल्ली , कोलकाता , मुंबई जैसे महानगरों में रहने वाले उद्योगपति और वोटों के सौदागर चला रहे हैं | तुष्टिकरण इनका मूलमंत्र है , और वोटबैंक इनका घोषित लक्ष्य |  संविधान को ही धर्मनिरपेक्ष घोषित कर राष्ट्र के मूल धार्मिक स्वरुप को नष्ट करने की कोशिश जारी है | इसीलिए घोर अमानवीय कृत्यों पर भी संविधान चुप हो जाता है , न्यायपालिका मौन धारण कर लेती है और विवाद बरसों बरस जारी रहते हैं |


धर्म आधारित सत्ता के भी अपने खतरे हैं पाखण्ड और पोंगापंथ दोनों की ही अति हो सकती है | लेकिन क्या आज के जैसी परिस्थिति होती ? धर्मनिरपेक्षता के जिस स्वरुप को आज राजनीति भुना रही है उसे तो हम पश्चिम से आयातित भी नहीं कह सकते हैं | पश्चिम में धर्म ने राज्य को नियंत्रित करना छोड़ दिया इसीलिए आज पश्चिम ने विश्व के व्यापक विनाश की तैयारी कर ली है , विज्ञान को कल्याण से ज्यादा भोग और साम्राज्यवादी अभिलाषाओं को पूर्ण करने में लगा दिया | इस्लामी जगत में राज्य अब भी कमोबेश धर्म के नियंत्रण में अवश्य है लेकिन इस्लाम का दर्शन ही किसी आधुनिक राज्य को नियंत्रित करने की योग्यता नहीं रख पाने के कारण शासन में सीमित दखल ही दे पाता है | इस परिदृश्य में भारत में धर्म आधारित व्यवस्था लागू करने के उपाय क्या हैं ?

भारत सदैव एक धर्म सापेक्ष राष्ट्र रहा है | जब जब धर्म की हानि हुई है तब किसी ना किसी रूप में सुधारकों ने चाहे वो बुद्ध रहे हों या महावीर , आदि शंकराचार्य रहे हों या फिर राजाराम मोहन राय रहे हो , महर्षि दयानंद रहे हों , स्वामी विवेकानंद रहे हों ,श्री अरविन्द घोष हों , या फिर पूजनीय बापू और आंबेडकर रहे हों राज्य सत्ता को ना केवल नियंत्रित किया बल्कि धर्म में पनपते पाखंड और निकृष्टता पर करारी चोट भी की | यहाँ तक कि धर्म ने आततायी हमलावरों और बादशाहों को भी मध्यम मार्ग अपनाने पर मजबूर कर दिया | हम कह सकते हैं कि धर्म अपनी व्याधियों को समय के साथ - साथ स्वयं दूर करने में सक्षम है लेकिन ठीक यही बात निरंकुश धर्मनिरपेक्ष सत्ता के लिए नहीं कही जा सकती क्योंकि उस पर कोई अंकुश नहीं है |

आज फिर से भारत में एक धर्म सापेक्ष व्यवस्था को स्थापित करने की आवश्यकता है लेकिन शोषण की आदी हो चली सत्ता इसे स्वीकार किस रूप में करेगी ? यह एक यक्ष प्रश्न है |

|| " सत्यमेव जयते " || 










9 Responses so far.

  1. Unknown says:

    "आज फिर से भारत में एक धर्म सापेक्ष व्यवस्था को स्थापित करने की आवश्यकता है"

    बिल्कुल सही बात कही आपने!

  2. बढिया पोस्ट लिखी है।लेकिन यह समस्या सुधरने वाली नही क्योकि अभी धरम की राजनीति. का ही जोर है.....

  3. आप के एक एक शव्द से सहमत है, ओर आज ऎसे विचारो की सख्त आवशकता है.
    धन्यवाद

  4. chintansheel लेख है आपका ......... पर जागना मुश्किल है हम भारत वासियों का ..........

  5. धर्मनिरपेक्ष की अवधारणा ही त्रुटिपूर्ण है | धर्म के बिना कोई भी सत्ता सही दिशा नहीं पा सकती | यही कारण रहा है की भारत के महान राजाओं ने हमेशा धर्मसम्मत कार्य किया, धर्म से विमुख होकर नहीं | इतिहास गवाह है की ऐसे राजाओं का जन कल्याण को ही सर्वोपरी रखा, सनातन धर्म राजा को प्रजापालक मानता है |

    विडम्बना ही है की हमारे राजनितिक आकाओं ने पंथ को धर्म मानने की भूल कर धर्मनिरपेक्ष ससान व्यवस्था की.... और इसका फल हम सबके सामने है |

  6. हम लोग बहस ही गलत मुद्दों पर करते है जैसवाल जी ! संविधान की किताब और कुछ उन नक्कारे लोगो जो कि मंदिर के आगे हाथ जोड़ना भी अपनी तौहीन और कष्टदायक समझते है, वही तक धर्मनिरपेक्षता है, अन्यथा मुस्लिम सिख इसाई इत्यादि सभी यहाँ ड्रम सापेक्षता को बड़ी तन्मयता से निभा रहे है ! धर्मनिरपेक्षता शब्द तो सिर्फ तथाकथित हिन्दू की डायरी में है, बस !

  7. जो कुछ है वह संविधान का सच है।

  8. तारीख लिखेगी तुम्हारे कर्म की हर दास्ताँ।
    सर कटाकर किस तरह, मगरूर तुम रहने लगे॥५

  9. हमनें शब्दों को अर्थों में रूढ़िगत कर दिया है। हम जो कहना चाहते हैं वह पुरातन अर्थों की धरा पर बेमानी हो जाते हैं। संप्रेषण की यह दुविधा आज के समय की सबसे बड़ी समस्या मुझे दीखती है।

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