तीन राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों की पराजय के बाद एक बार फिर से भाजपा की हार को लेकर हिंदुत्ववादी हलकों में भारत की आम जनता को कोसने की कवायद शुरू हो गयी है | हिन्दू बहुल जनता को कोसने की यह प्रक्रिया हर चुनावी हार के बाद शुरू कर दी जाती है | प्रत्येक चुनावी हार के बाद हिंदूवादी राजनीति का दम भरने वाले जनता की आँखों पर पट्टी बंधे होने की दुहाई तो देते नज़र आते हैं , लेकिन आखिर इन हारों की वजह क्या है ? इस बात की ईमानदारी से पड़ताल करने की ना तो कोई कोशिश ही की जाती है और ना ही किसी सुधार प्रक्रिया की शुरुआत के ही कोई लक्षण देखने को मिलते हैं क्योंकि इस पूरे प्रयास से हिंदुत्व की राजनीति का नव - सृजन करने में जो प्रसव पीड़ा होगी उसे सहने का साहस हिंदुत्व की विचारधारा को अपना बताने वाली शक्तियां खो चुकी हैं | अब प्रश्न यह उठता है कि क्या हिंदुत्व की राजनीति बदलते भारत में अप्रासंगिक हो चुकी है ?
इस बात को समझने के लिए हमें हिंदुत्व की राजनीति के मायने समझने होगें | इस बात में कोई शक नहीं है कि आज भी हिंदुत्व पीड़ित है | विगत सहस्त्रों वर्षों से चली आ रही सनातन संस्कृति कराह रही है | आज हिंदुत्व की जो पीड़ा है वो बहुआयामी है किन्तु इस पीड़ादायक परिवेश में हिंदुत्व को जितनी क्षति बाहरी आक्रमणों से हुई है उससे कहीं ज्यादा अंदरूनी कुसंगतियों से पहुंची है और इसी दुःख को दूर ना कर पाने की सजा एक आम हिन्दू भाजपा जैसी हिन्दू हित की बात करने वाली पार्टियों को चुनावी मत ना देकर देता रहा है | भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियाँ देश के आम हिन्दू मन को समझ पाने में असफल रही हैं और यही नासमझी आने वाले वक़्त में भी इनकी हार का ही कारण बनेगी | हिंदुत्व जागरण की बात करने वाली भाजपा ने आधुनिक हिंदुत्व की परिभाषा में अगर आज सत्ता में बैठी कांग्रेस के इतिहास से ही कुछ सबक लिया होता तो आज संसद के गलियारों से देश में भाजपा की गूँज सुनाई दे रही होती |
अपने आरम्भ से ही कांग्रेस ने अपनी छवि नरम हिंदुत्व की बना रखी थी , तुष्टिकरण की तीव्र शुरुआत तो पिछले बीस - पचीस सालों में ही देखने को मिलती है इससे पहले भी कांग्रेस ने तुष्टिकरण तो किया था लेकिन इसका कारण कभी राजनैतिक रूप से चुनाव जीतना नहीं रहा | १८५७ के ग़दर के विफल हो जाने के बाद से ही देश में हिन्दू और मुसलमानों ने अपने लक्ष्य अलग - अलग कर लिए थे जहाँ हिंदुत्व ने सुधारवादी आन्दोलनों के माध्यम से स्वधर्म परिष्कार का रास्ता चुना वहीं मुसलमान हमेशा ही मुगलकालीन वैभव को वापस लाने के लिए आज़ादी चाहते थे | कांग्रेस ने अपनी शुरुआत में इन दोनों को एक मंच पर लाने की कोशिश की लेकिन तुष्टिकरण की घातक नीतियों के बावजूद मुसलमान , मुस्लिम लीग के साथ हो लिए | इससे कांग्रेस में सबसे ज्यादा प्रभाव सुधारवादी आंदोलनों से जुड़े हिन्दू नेतृत्त्व का बढा | इसको आगे बढ़ाने का काम किया आर्य समाज और इसी तरह के दूसरे समाज सुधारक आंदोलनों से जुड़े नेताओं ने ,जिनके प्रयासों ने देश पर कांग्रेसी सत्ता सुनिश्चित करने में अपनी महती भूमिका निभाई |
अगर हम आज़ादी के पहले के कांग्रेस के नेतृत्त्व को देखें तो यह कहा जा सकता है संगठन से जुड़े अधिकांश छोटे - बड़े नेता देश की आज़ादी के साथ - साथ सुधार आंदोलनों के अगुआ भी थे जिन्होंने हिंदुत्व को कुसंगतियों से दूर करने में अतुलनीय भूमिका निभाई | स्वतंत्रता के बाद भी इन्ही नेताओं और संचालकों के पुण्य कर्मों को स्मृति में रखकर हिन्दू जनमानस ने साल दर साल कांग्रेस को राजनैतिक और सामाजिक संगठन के क्षेत्र में अग्रणी समझते हुए देश की सत्ता सौंप दी | सुधार आन्दोलनों से निकले हिन्दू क्षत्रपों की अपील इतनी दमदार होती थी कि इस काल में किसी और राजनैतिक दल के लिए हिंदुत्व की मुख्यधारा में खुद को साबित करने का मौका ही नहीं होता था | कांग्रेस के संगठन से जुड़े इन्ही नेताओं ने सुधार आन्दोलनों में देश और धर्म के परिष्कार की लडाई लड़ी थी , जात - पात का खात्मा करने की कोशिश , भूदान और भूमि सुधार , वैदिक काल के गौरव से आम हिन्दू जन - मानस को जोड़ने का प्रयास , धार्मिक पोंगापंथ और पाखंड पर करारी चोट , आधुनिक शिक्षा और स्त्री की स्थिति में सुधार , सती प्रथा और बाल विवाह जैसी कुरीतियों पर रोक इत्यादि अनेक प्रयास कांग्रेस से जुड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं ने किया था और भारत का हिन्दू जनमानस सदैव ही इनके आग्रह को मतों के रूप में कांग्रेस तक पंहुचा कर अपना आभार व्यक्त करता रहा |
बदलते समय के साथ कांग्रेस ने तुष्टिकरण की राह चुनी और इसी के साथ राजनीति में भाजपा और सहायक हिंदूवादी शक्तियों के लिए भी स्थान बन गया | भाजपा की राजनीति को स्थापित करने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका को नकार देना एक बहुत बड़ी भूल होगी | संघ भी एक सुधार वादी आन्दोलन ही रहा है और आज जब हम भाजपा के प्रति हिन्दू जनमानस के एक वर्ग की कट्टर सहानुभूति देखते हैं वो कहीं ना कहीं संघ के सामाजिक सरोकारों के प्रति श्रद्धा के कारण ही है | भाजपा एक समय अरुणाचल से लेकर कर्नाटक में अपनी राजनैतिक उपस्थिति दर्ज कराने में सक्षम रही तो उसका भी रास्ता संघ की नीतियों से होकर ही गुजरता रहा है | संघ द्वारा राष्ट्र निर्माण में किये गए योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता है |
लेकिन इन सबके बावजूद संघ और उसके अनुषंगी संगठन भारत के विशाल हिन्दू जनमानस का प्रतिनिधि बन पाने में असमर्थ रहे हैं तो इस बात के निहितार्थ तलाशने की भी आवश्यकता है | संघ ने हिंदुत्व के प्रति अपनी घोषित नीति में इतने छेद कर रखें हैं कि सारे प्रयासों की हवा ही निकल जाती है | संघ और भाजपा की सबसे बड़ी विफलता हिन्दुओं को एक मंच पर ला पाने की रही है | अन्य सुधार आंदोलनों ने जहाँ हिन्दू धर्म की आतंरिक कमजोरियों पर जोरदार प्रहार किया वहीं संघ ने अपना सारा जोर हिन्दुओं को विदेशनीति समझाने में लगा दिया | जब गाँव के दलित को गाँव में पूजा - पाठ करने के लिए गाँव के ही मंदिर में ही प्रवेश नहीं मिलेगा तो ऐसे में कौन से हिंदुत्व की दुहाई देकर उसे राम - मंदिर और राम सेतु के मुद्दे पर साथ रखा जा सकता है | भाजपा और संघ - विहिप में अंदरूनी स्तर पर मठाधीशों ने कब्ज़ा जमा कर रखा है जहाँ आज भी संकीर्ण ब्रह्मणवाद और मनुवादी विचारधारा हावी है | ऐसी ही विचारधारा ने संघ को हिन्दू जनमानस का मुख्य प्रतिनिधि बनने से रोक दिया है | असल में भाजपा , संघ - विहिप के पास राष्ट्रनीति और विदेशनीति तो बहुत अच्छी है लेकिन धर्मनीति बेहद कमजोर | इस धर्मनीति में बहुत बार विद्वेष और फासीवाद हावी हो जाता है | कई बार ऐसा हुआ है कि राजनैतिक मजबूरियों के चलते फासीवादी और कट्टर व्यक्तियों के हाथ में नेतृत्त्व सौपं दिया जाता है जिसका सहिष्णु और अत्यधिक संवेदनशील हिन्दू समाज के मानस पर बुरा प्रभाव पड़ता है |
आज हिन्दू समाज की कुरीतियों को लेकर दिनरात हिंदुत्व की माला जपने वाली भाजपा और संघ - विहिप कितनी सक्रीय ? है यह किसी से छुपा नहीं है | भाजपा और संघ को वैलैनताइन दिवस पर उधम मचाने वाले बेहुदे बजरंगी तो स्वीकार्य हैं पर जाटों की क्रूर खाप पंचायतो के फरमान पर चुप्पी साध लेना ही श्रेयस्कर लगता है | ऐसी राजनीति को हिन्दू कैसे स्वीकार कर सकता है | जब बात भाजपा , संघ - विहिप की आती है तो एक बारगी हिन्दू का मन कहता है कि ये राजनैतिक शुचिता के पर्याय बन सकते थे लेकिन इनका आचरण अब सम्मान के योग्य नहीं | कई बार जब पानी सर से ऊपर निकल जाता है तो आम हिन्दू स्थानीय संभावनाओं को ध्यान में रखकर अपना कीमती मत दे देता है | जहाँ तक भाजपा की बात है अब वो भी पूरी तरह से कांग्रेस की राह चल पड़ी है |
इस नयी राह पर धर्म और राष्ट्र सिर्फ वोट लेने के लिए हैं प्राथमिकता में बाज़ार और अमेरिका है | ऐसी भाजपा राम के नाम को केवल चुनावों के वक़्त याद करती है , सो रामभक्त हिन्दू ने बिसरा दिया तो रोष कैसा ? ऐसी भाजपा जब शिवसेना और अकालीदल जैसे क्षेत्रवादी राजनीति के विषैले मित्र बनती है तो भी हिन्दू उससे दूर चला जाता है | अगर इन्ही दुर्गुणों के साथ सरकार चलानी है तो हिन्दू स्थानीय स्तर पर हिंदुत्व की राजनीति करने वाले कांग्रेसियों को भी चुन लेता है |
भाजपा आज भी देश के हिन्दू मन की सबसे बड़ी उम्मीद बन सकती है लेकिन उसे यह समझना पड़ेगा कि हिंदुत्व की राजनीति के मायने और भी हैं , जो कि आज पनप रही संकीर्णता को परे धकेल कर अपना अस्तित्व सिद्ध करना चाहती है बस एक सही संगठन की पहल की प्रतीक्षा है |
|| " सत्यमेव जयते " ||
भाजपा आज भी देश के हिन्दू मन की सबसे बड़ी उम्मीद बन सकती है लेकिन उसे यह समझना पड़ेगा कि हिंदुत्व की राजनीति के मायने और भी हैं , जो कि आज पनप रही संकीर्णता को परे धकेल कर अपना अस्तित्व सिद्ध करना चाहती है बस एक सही संगठन की पहल की प्रतीक्षा है |
|| " सत्यमेव जयते " ||